![यूपी के बाद मोदी अब पाकिस्तान के मोर्चे पर भी फतह हासिल करेंगे?](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhk31Mjh6b1A_xLZipBGnhHtdtX_ZjjVr8i9e2fi3sL4TryWKAuqLPPj-XW_j1az3rVBwTN9M60pl9lMaAraXBegfF6jY-Ym4xUFQqOIdKI-b_v9NcZTALakikj5w7FQMhgTxeHjsVGmqPW/s72-c/Modi_Nawaz.jpg)
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यूपी से मिले भारी जनादेश के बीच प्रधानमंत्री की लोकप्रियता शिखर छू रही है. क्या इस भारी जनसमर्थन की ताकत का इस्तेमाल प्रधानमंत्री पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने में करेंगे. पाकिस्तान को लेकर प्रधानमंत्री ने कभी नरम तो कभी गरम रुख अख्तियार किया है लेकिन उरी में हुए हमले के बाद भारत की लगातार कोशिश पाकिस्तान को राजनयिक रुप से अलग-थलग करने की रही.
उत्तरप्रदेश में चुनाव होने तक पाकिस्तान को लेकर रुख में नरमी नहीं आने वाली है, यह बात बिल्कुल जाहिर थी. लेकिन अब चुनाव खत्म हो गए हैं, चुनाव-प्रचार का शोर थम गया है तो शायद प्रधानमंत्री का ध्यान एक बार फिर से परेशानी खड़ा करने वाले पड़ोसी पाकिस्तान के साथ कायम रिश्तों पर जाए. अगर इस मोर्चे पर कुछ बेहतर होता है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी की छवि और ज्यादा निखरेगी.
पिछले महीने भारत के रुख में कुछ नरमी दिखी. कुछ दिनों बाद इसी महीने लाहौर में सिंधु जल आयोग (इंडस वाटर कमिशन) की बैठक होने वाली है और भारत इसमें शिरकत करेगा.
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) का संचालन विदेश मंत्रालय करता है और आईसीसीआर ने कुछ दिनों पहले कराची साहित्य महोत्सव का आयोजन किया था. विदेश मंत्रालय का कहना था कि पाकिस्तान की सरकार के साथ भले रिश्तों में कड़वाहट है लेकिन दोनों देशों के लोगों के बीच रिश्ते में मिठास बरकरार रखने की कोशिश जारी रहेगी. आईसीसीआर ने पहली बार पाकिस्तान में कोई समारोह आयोजित करने का जिम्मा लिया था.
कुछ दिनों पहले बहुत से पाकिस्तानी बंदी भी छोड़े गये हैं. अनजाने में सीमा पार कर भारत पहुंचने वाले दो स्कूली बच्चों के बारे में शक था कि उरी हमले से उनका कोई ना कोई रिश्ता है. लेकिन इन दोनों बच्चों को अब छोड़ दिया गया है और ये बच्चे अपने परिवार से जा मिले हैं.
देश के कुछ सांसद एशियन पार्लियामेंटरी असेंबली की बैठक में भाग लेने वाले हैं. बैठक में भागीदारी के लिए कांग्रेस के सांसद शशि थरूर की अगुवाई में प्रतिनिधिमंडल रवाना होने को है. इन सारी बातों से एक बदलाव का संकेत तो मिलता है. लेकिन क्या आने वाले महीनों में इन कोशिशों पर कुछ और रंग चढ़ेगा? पूर्व विदेश सचिव ललित मानसिंह कहते हैं कि `अभी तनिक इंतजार कीजिए.’
होम करने के चक्कर में अंगुलियां इतनी बार जल चुकी हैं कि मोदी एक बार फिर से मोहब्बत का पैगाम देने के मामले में कोई हड़बड़ी नहीं दिखाने वाले.
ललित मानसिंह अपनी बात को समझाते हुए कहते हैं, `हमें दूसरी तरफ से भी कुछ संकेत मिलने चाहिए.’ उन संकेतों में एक है कि कोई बड़ा आतंकवादी हमला होता है या नहीं. ऐसा कोई हमला होता है तो मोदी को कदम उठाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी. या तो सर्जिकल स्ट्राईक के जरिए जवाब दिया जायेगा या फिर जवाबी कार्रवाई इससे भी ज्यादा बड़ी हो सकती है.
ललित मानसिंह अपनी बात को तफ्सील के साथ समझाते हुए कहते हैं कि दूसरा बड़ा संकेत कश्मीर के जमीनी हालात हैं. भारत का मानना है कि कश्मीर घाटी में अलगाववादी उभार का सीधा रिश्ता सीमा-पार से मिलने वाली मदद से है. अगर पाकिस्तान ने कश्मीर-कार्ड खेलना जारी रखा और वह कश्मीर के विरोध-प्रदर्शनों को शह देने की अपनी चाल से बाज नहीं आता तो फिर उसके साथ रिश्तों में सुधार नहीं हो सकता.
पाकिस्तानी सेना की कमान राहील शरीफ से कमर जावेद बाजवा के हाथ में आयी तो उम्मीद बंधी थी कि तस्वीर बदलेगी. बाजवा अपने पेशेवराना रुख के लिए जाने जाते हैं. वे इस बात में यकीन करते हैं कि सेना को जनता की चुनी हुई सरकार के कामकाज में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए. लेकिन मोहनभोग का मजा तो तब है जब वह मुंह में पड़े, थाली में पड़ा रहे तो अच्छा लग सकता है लेकिन उससे पेट तो नहीं भरता.
बाजवा अभी जिस पद पर पहुंचे हैं वहां रहते हुए उनके ख्याल बदल भी सकते हैं. आखिर पाकिस्तान में सिलसिला चला आ रहा है कि वहां की नागरिक सरकार भारत, अमेरिका या फिर अफगानिस्तान जैसे देशों के साथ रिश्ते बनाना चाहे तो सेना ही उस रिश्ते की रुपरेखा तय करने करने के लिए जोर लगाने लगती है.
लेकिन यह भी सच है कि बाजवा के आर्मी चीफ रहते पाकिस्तान की सरकार ने जमात-उद- दावा के सरगना और मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद को नजरबंद करने का फैसला लिया. इसकी कई वजहें हो सकती हैं लेकिन यह सच्चाई है कि यह मौलाना जो बहुत अहम है, अभी नजरबंद है और कोई नहीं जानता कि उसकी नजरबंदी कितने दिनों तक जारी रहेगी.
वसंत की शुरुआत के साथ पहाड़ों के दर्रों की बर्फ पिघलने लगी है. घुसपैठियों का कश्मीर में आना आसान हो गया है. भारत के डीजीएमओ ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष से बात करके कहा है कि घुसपैठिए नियंत्रण-रेखा पर जगह-जगह अड्डा जमाये बैठे हैं और कश्मीर में घुसने की फिराक में हैं.
पाकिस्तान उनके वजूद से इनकार करता आया है. अगर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों को कश्मीर में भेजने से बाज नहीं आता तो फिर रिश्तों में सुधार की बात बेमानी है. ऐसे में मोदी पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने के मामले में कुछ नहीं कर सकते.
लेकिन अगर अमन कायम रहता है और इस बात के संकेत नहीं मिलते कि पाकिस्तान कश्मीर में हालात बिगाड़ने पर आमादा है तो मोदी पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने के मोर्चे पर बहुत कुछ करने की स्थिति में होंगे.
कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में जून में हो रहे शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन समिट में मोदी और नवाज शरीफ दोनों को भागीदारी का न्योता मिलेगा. इसके बाद न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा की बैठक होगी. इन दो सम्मेलनों में मौका होगा कि दोनों नेता आपस की बात भी कर लें. ऐसा होता है या नहीं यह देखने वाली बात होगी.
लेकिन कुछ विशेषज्ञों की राय इससे अलग है. एक विशेषज्ञ श्रीनाथ राघवन कहते हैं: 'सच पूछिए तो मैं नहीं मानता कि मोदी पर पाकिस्तान से बात करने या न करने को लेकर घरेलू स्तर पर कोई दबाव है. यूपी इलेक्शन से इस बात को कोई नाता-रिश्ता नहीं है.’
अगर कोई ऐसा आतंकी हमला होता है जिसमें मरने वालों की तादाद ज्यादा हो तो और बात है, वर्ना सरकार अभी पाकिस्तान को लेकर जिस राह पर चल रही है उसी पर आगे भी बने रह सकती है. कश्मीर में घात लगाकर इक्का-दुक्का हमले होते हैं तो इससे पाकिस्तान को लेकर सरकार का रुख एकदम बदल जाएगा, ऐसा नहीं माना जा सकता.
बहरहाल, राघवन भी मानते हैं कि दोनों देशों के रिश्तों में अभी जो जकड़न कायम है उसे खत्म होना चाहिए.
अमेरिका सहित दुनिया की अन्य बड़ी ताकतें फिलहाल बड़ी बेतरतीबी की हालत में हैं, ऐसे में भारत और पाकिस्तान पर आपसी बातचीत के लिए बाहर से कोई दबाव नहीं है. दुनिया अभी डोनाल्ड ट्रंप की चालबाजियों के कारण कहीं ज्यादा गंभीर मसलों में उलझी है. एक बार राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप का कामकाज एक सधे हुए ढर्रे पर आ जाए और उनका ध्यान अफगानिस्तान के मसले पर आये तो वे भारत और पाकिस्तान को बातचीत करने के लिए कह सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बड़े मंजे हुए नेता हैं और वे इस बात को बखूबी समझते हैं. इसके पहले कि अमेरिका कहे, वे बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ाने की दिशा में बढ़ सकते हैं. वे निश्चित ही चाहेंगे कि विश्व के नेतागण उनके इस कदम को मंजूर करें.
प्रधानमंत्री पाकिस्तान के साथ सतर्क भाव से बातचीत के लिए कदम बढ़ाएंगे, ऐसा मानने के आसार बहुत ज्यादा हैं. लेकिन नवाज शरीफ अपनी परेशानियों में उलझे हैं और उनपर ‘पनामा गेट कांड’ की जांच चल रही है. ऐसे में क्या नवाज शरीफ ऐसी स्थिति में होंगे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहलकदमी के जवाब में रिश्तों को सुधारने के लिए अपनी तरफ से कुछ कदम बढ़ा सकें ? अभी यह सवाल कायम रहेगा.
Source: http://hindi.firstpost.com